ब्रह्मोदन सूक्त शीर्ष भाग 1

अथर्ववेद चतुर्थ मंडल (४) सूक्त (34)

ब्रह्मास्य शीर्षं बृहदस्य पृष्ठं वामदेव्यमुदरमोदनस्य । छन्दांसि पक्षौ मुखमस्य सत्यं विष्टारी जातस्तपसोऽधि यज्ञः ॥१॥

इस ओदन (ब्रह्मौदन) का शीर्ष भाग ब्रह्म है, पृष्ठभाग बृहत् (विशाल) है, वामदेव (ऋषि अथवा उत्पादक सामर्थ्य) से सम्बन्धित इसका उदर है, विविध छन्द इसके पार्श्वभाग हैं तथा सत्य इसका मुख हैं। विस्तार पाने वाला यह यज्ञ तप से उत्पन्न हुआ है ॥१॥

अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम् । नैषां शिश्नं प्र दहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैणमेषाम् ॥२॥

यह (ब्रह्मौदन) अस्थिरहित (कोई भी इच्छित आकार लेने में सक्षम और पवित्र है । वायु से (शरीर में प्राणायाम आदि के द्वारा) शुद्ध और पवित्र होकर यह पवित्र लोकों को ही प्राप्त होता है। अग्नि इसके शिश्न (उत्पादक अंग) को नष्ट नहीं करता । स्वर्ग में (इसका तेजस् धारण करने वाली) इसकी बहुत सी स्त्रियाँ (उत्पादक शक्तियों) हैं ॥२॥

विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् अवर्तिः सचते कदा चन । आस्ते यम उप याति देवान्त्सं गन्धर्वैर्मदते सोम्येभिः ॥३॥

जो (साधक) इस विस्तारित होने वाले ओदन (स्थूल या सूक्ष्म अन्न) को पकाते (प्रयोग में लाने योग्य परिपक्व बनाते) है, उन्हें कभी दरिद्रता नहीं व्यापती । वे यम(जीवन के दिव्य अनुशासन) में स्थित रहते हैं, देवों की निकटता प्राप्त करते हैं तथा सोम-पान योग्य गंधर्वादि के साथ आनन्दित होते हैं ॥३॥

विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् यमः परि मुष्णाति रेतः । रथी ह भूत्वा रथयान ईयते पक्षी ह भूत्वाति दिवः समेति ॥४॥

जो याजक इस अन्न को पकाते हैं, यमदेवता उनको वीर्यहीन नहीं करते। वे अपने जीवनपर्यन्त रथ पर आरूढ़ होकर पृथ्वी पर विचरण करते हैं और पक्षी के सदृश बनकर द्युलोक को अतिक्रमण करके ऊपर गमन करते हैं ॥४॥

एष यज्ञानां विततो वहिष्ठो विष्टारिणं पक्त्वा दिवमा विवेश । आण्डीकं कुमुदं सं तनोति बिसं शालूकं शफको मुलाली । एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥५॥

यह यज्ञ समस्त यज्ञों में श्रेष्ठ है । इस अन्न को पकाकर याजकगण स्वर्गलोक में प्रविष्ट होते हैं । (यह यज्ञ) अण्ड में स्थित मूलशक्ति को, शान्तचित्त से, कमलनाल की तरह (तीव्र गति से) विस्तारित करता है । (हे साधक !) ये सब धाराएँ (इसके माध्यम से) तुम्हें प्राप्त हों । स्वर्ग की मधुर रसवाहिनी दिव्य नदियाँ तुम्हारे पास आएँ ॥५॥

घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना । एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥६॥

हे सव (सौमयज्ञ) के अनुष्ठानकर्ता ! घृत के प्रवाह वाली, शहद से पूर्ण किनारों वाली, निर्मल जल वाली, दुग्ध, जल और दहीं से पूर्ण समस्त धाराएँ मधुरतायुक्त पदार्थों को पुष्ट करती हुईं, द्युलोक में आपको प्राप्त हों ॥६॥

चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्नामुदकेन दध्ना । एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥७॥

दूध, दही और जल से पूर्ण चार घड़ों को हम चार दिशाओं में स्थापित करते हैं । स्वर्गलोक में दुग्ध आदि की धाराएँ मधुरता को पुष्ट करती हुई, आपको प्राप्त हों और जल से पूर्ण सरिताएँ भी आपको प्राप्त हों ॥७॥

इममोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम् । स मे मा क्षेष्ट स्वधया पिन्वमानो विश्वरूपा धेनुः कामदुघा मे अस्तु ॥८॥

यह विस्तारित होने वाला स्वर्गीय ओदन’ हम ब्राह्मणों (ब्रह्मनिष्ठ साधकों) में स्थागित करते हैं, यह ओदन स्वधा से दुग्ध आदि के द्वारा वर्द्धित होने के कारण नष्ट न हो और अभिलषित फल प्रदान करने वाली कामधेनु के रूप में परिणत हो जाए ॥८॥

  • अथर्ववेद ब्रह्मोदन सूक्त का शीर्ष विभाग 1 समाप्त।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, जैसा भोजन वैसा ज्ञान। सत्व, रजस, तमस।
  • अथर्ववेदः ब्रह्मोदन सूक्त का पृष्ठ विभाग ग्यारहवे मंडल का प्रथम सूक्त है। जो यहां नही लिया। पर उत्सुक याचक और वाचक आवकार्य है।

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

Leave a comment

Design a site like this with WordPress.com
Get started